हक हहुक की लड़ाई

हाय रे गरीबी! जिन्दगी क्या मौत भी है भारी

ब्यूरो रिपोर्ट,मिर्जापुर (अहरौरा) खुथवा पहाड़ पर वनवासियों की एक बस्ती है जहाँ की जीवनशैली वैभवशाली समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, मगर सभ्य समाज के ये वनवासी लोग वोट बैंक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यहाँ के वनवासी समाज के लोग दो जून की रोटी के जंगलों की खाक छांनते हैं। नौजवान शहरों में जाकर लोहे की भट्ठीयों में तपते हैं, पहाड़ों से निकलते पत्थरों के कणों और धूलों को सीने में दबाकर पत्थरों को घन, घुट्ठों से चीरते हैं। इसी गांव का निवासी वुल्लु वनवासी अपनी गर्भवती पत्नी और दो बच्चों गांव में छोड़कर शहर कमाने गया है। इसके परिवार में आगे पीछे कोई नहीं है।

ऐसे में वह अकेली बच्चों के संग घर में पड़ी रहती है। इसी बीच लड़की की तबीयत खराब हो गई, ईलाज के लिए वुल्लु की पत्नी हीरामनी बहुत प्रयास करती रही लेकिन अपनी आठ वर्षीय बच्ची को बचा नहीं पायी। धनतेरस की रात्रि बारह बजे उसकी बच्ची मर गयी। वह चिखती रही, रोती रही, गला रूध गया। सुबह वनवासियों की भीड़ दरवाजे पर इकट्ठी हुई मगर हाय रे गरीबी पैसा कहाँ और किसके पास? मगर अफसोस जिसके पास पैसा था उसके पास दिल कहाँ? लाश को घर छोड़कर पैदल दो किलोमीटर बाजार आयी और दो घंटे तक एक जगह बैठी, आवाज गले का साथ छोड़ चुकी थी। बार बार पूछने पर पहले आंसुओं धारा निकल पड़ी फिर पूरी दास्तां समाज के समाज के सामने आयी। एक समाचार पत्र के संवाददाता ने पैसे दिये और वह घर की ओर लौट गयी। समाचार लिखे जाने तक वह रास्ते में होगी और उसकी बेटी की लाश अभी वहीं पड़ी होगी।

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