पुरूषार्थ कल्पतरू

अनंत श्रीविभूषित श्री ओमानंद जी महाराज राजा बाबा कृत “पुरुषार्थ- कल्प- तरु” ग्रंथ का सारांश

                                  ॥ॐ॥
                     पुरुषार्थ- कल्प- तरु ग्रंथ 
(प्रणेता: अनंत श्रीविभूषित श्री उमानंद जी महाराज राजा बाबा)
              (वास्तविक धर्मों के सनातन नियम)
                               ॥दोहा॥
      प्रगट करत मति और थी, समझत हो गई भिन्न।
      जो जस समझे ग्रन्थ को, भाव विज्ञ बिन खिन्न॥
                              ॥श्लोक॥
        तावद्गर्जन्ति शास्त्राणि, जम्बुका विपिने यथा।
               न गर्जति महाशक्तिर्यावद्वेदान्त केसरी ॥
                     अनन्त श्री विभूषित महान
तपस्वी श्री उमानन्द जी महाराज (स्वामी राजाबाबा)
 के परम पावन श्री चरणों में सादर- समर्पित
           “गीता में कर्मयोग और त्यागयोग दोनों ही है, अत: उसका भाव तो उन्हीं को ज्ञात होगा, जो कि कर्म योग सिद्ध कर सिद्ध योगी हुआ होगा। आज तो कर्म के ही उलझन से उऋण नहीं हो पाते, तो फिर त्यागयोग का पता क्या पावेंगे? कदापि नहीं । योग और महात्माओं के भाव को जानने की सामर्थ्य तब होगी, जब साधन युक्त जिज्ञासु बन महापुरुषों की खोज और प्राप्ति करेंगे, तब गीता, उपनिषद, षटदर्शन इत्यादि मत मतान्तर के भाव समझने के पश्चात और ग्रहण करने के उपरान्त महात्माओं की शिक्षाएं अवश्य अनुभव कर सकते हैं”।
         पूज्य श्री उमानन्द जी महाराज भी इसी स्तर के युग महापुरुष थे। उनकी वाणी तथा अन्तः प्रेरणा से सनातन काल के वास्तविक नियम- धर्मो का जो अर्थ मिला, उसी का संकलन पुरुषार्थ- कल्प- तरु-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष प्रक्रिया के साथ प्राप्त होते हैं।
                         (गुरु- वंदन)
प्रज्ञा वै शाख बेधक्षु भित जलनिधेर्वेदनाम्नोऽन्तरस्थं,
भूतान्यालोक्य मग्नान्यविरत जनन ग्राह घोरे समुड्रे।
कारुण्यादुद्दधारामृतमिदममरैर्दुर्लभं भूत हेतोर्यस्तं।
पूज्याभिः पूज्यं परमगुरुममुं पाद पातैर्नतोऽस्मि ॥
                            टीका
दो०– जो गुरु जीवन को लख्यो, डूबत जगत मझार।
       जन्म-मरण बड़ ग्राह सों, अविरत दुखी अपार ॥
       गरसित-जग-भयभीत पर, करुणा कियौ उदार।
      बुद्धि-साख की मथनि शुभ, वेद-अब्धि महँ डार॥
       मथन कियो परयत्न सों, निसरेउ अमृत-धार॥
       शुद्ध- अमी- वेदान्त- प्रिय, जो वेदन को सार॥
          सो मनुजन को देत हैं, दुर्लभ देवन मान।।
       ता गुरु परम कृपालु को, सब में पूज्य बखान॥
        गुरु चरनन की पादुका, नमन करूँ सिर नाय।
       परस करत दुविधा गई, “उमानन्द” सुख पाय॥
पाठक जन,
       इस संसार में न जाने कितने धुरन्धर विद्वान हुये। वाल्मीकि तथा वशिष्ट और गौतमादि ऐसे महापुरुष संसार के कल्याणार्थ एक से एक उपाय और उपदेश-पूर्ण बातें लिख गये हैं। फिर उनके सामने मेरी गणना तिल बराबर भी नहीं है। अतः निजी इच्छा नहीं होती कि कुछ और भी विशेष लिखूं; परन्तु संसार की वर्तमान भ्रम-स्थिति में, जिज्ञासुओं
की जिज्ञासा देखकर, सरल भाषा में यह पुस्तक प्रकाशित करती पड़ी।
    आज दिन भारत तथा अन्य देशों के लोग, “धर्मका ध्यान, सभ्यता का ज्ञान, व्यवहार का भान तथा विचार की छान” को त्याग केवल स्वार्थ का सहारा ले, शान्ति-सुख की प्रबल कामना रखते हैं। इस कामना की पूर्ति के लिये बुद्धि दौड़ाकर यत्न भी
करते हैं, परन्तु प्रिय शान्ति का सुख-सूर्य स्वप्न में भी प्रकाशित नहीं होता और दुःख-रूपी-रजनी का विनाश कब होगा ? इसका पता नहीं चलता।
अपने यत्न का लाभ अपने मतानुसार लोग उठाते भी हैं तो भी क्षणिक सुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाते और अन्त में सन्ताप की मात्रा अधिक बढ़ जाती है। कुछ सज्जन ऐसे भी हैं, जो अर्थ-काम से विरागी तथा धर्म, मोक्ष के अनुरागी हो, शान्ति, सुख के हेतु, काशी, कश्मीर, हरिद्वार तथा हिमालय के गम्भीर बनों में, ज्ञानी-महात्मा और योगी-पुरुषों को ढूंढ़ते
फिरते हैं। उनका ऐसा काम जिज्ञासु रूप से सराहनीय है। ऐसे लोगों में विवेक की मात्रा होने से चतुर्थ साधन, शान्ति इच्छा-रूपी-मुमुक्षता भी रहती है। परन्तु मध्य के दो साधन अर्थात यथार्थ वैराग और षट-सम्पत्ति की हीनता सभ्यता की दीनता तथा सेवा की क्षीणता, बनी रहने के कारण, उनमें से अनेकों के नेत्रों में एक प्रकार का कुरोग उत्पन्न हो जाता है,
जिससे महात्मा और गुणी-जनों में अवगुण भान होता और अवगुणियों में गुणों का ढेर प्रतीत होने लगता है। ऐसी दशा में महात्माओं का दर्शन होना ही दुर्लभ हो जाता है और अवगुणियों के फेर में जा धोखा खाने, फिर अन्त में निराश हो कहने लगते हैं, कि आज दिन ऐसा कोई है ही नहीं, जो इस विषय को बता सके। इसका फल यह होता है कि ऐसे लोग फिर श्रद्धा-रहित हो, स्वयं गीता, उपनिषद्इत्यादि वेदान्त- ग्रंथों का अवलोकन करके अपने मनमाने कर पण्डित बन बैठते हैं। पुस्तकों के द्वारा कुछ योग-जाप का प्रचार भी करते है ; जिसके प्रभाव से लोग उन्हें समझते हैं कि अमुक व्यक्ति बहुत पहुॅचे हुये महात्मा हैं। परन्तु उनका दर्शन करने से सारा भेद खुल जाता है। शास्त्रों का भाव न जानने से विषय-भोग-युक्त मनमानी योगी, रोग के द्वारा और वाचक-ज्ञानी शोक और असत्याभिमान के कारण अधिकतर अशान्ति के दलदल में जा फँसते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि जो सचमुच में महापुरुष हैं, वे भी इन कुपक्रियों के कारण निन्दित होने से नहीं बचते।
बहुत से ऐसे हैं जो सत्य मार्ग को त्याग अपने मन का एक पृथक् मार्ग चलाते हैं, जिसमें आप भी भटकते और अन्य अल्पज्ञ को भी भटकाते हैं। इस प्रकार अपने सनातन-मार्ग की निन्दा करते हैं। जैसे वाममार्ग के समय सनातन की निन्दा करते हुए, मनुष्यों का सिद्धान्त था कि
                            ॥ पाली ॥
     सुईवुत्तिणा महामज्जवेण मलेच्छेण मलेच्छेण
     बसणं दीम्हदरमएण भअवं विस्सम्भरो दिट्ठों।
                              सारांश
   टी0- पवित्र-वृत्ति अर्थात् महामद्यपान से, निर्मल नशीले नेत्रों से मलेच्छ-पत्रों के धारण से, कुटिलता और अहंकार से, भगवान-विश्वम्भर प्रत्यक्ष होते हैं। उनकी दशा वैसी ही है:-
                           || चौपाई ||
करि न जाई सर मज्जन पाना।
                            फिरि आए समेत अभिमाना।।
जो बहोरि कोउ पूछन आवा।
                            सर निन्दा करि ताहि सुनावा।।
     तादृश्य जनों की आसक्ति सनातन की निन्दा में देख, लेखक की आसक्ति इस ग्रन्थ के लिखने में हुई।
फिर भी भारत की ऐसी गोलमाल-व्यवस्था में एक बह विचित्रिता है, कि परम-शान्ति के निमित्त ही ऐसा गोलमाल फैला है। परन्तु भला शुद्ध-साधन और सदोपदेश के बिना क्या शान्ति प्राप्त हो सकती है ? नहीं।
जो लोग मनमाने मार्ग कल्पित कर स्वयं चलते और दूसरों को भी चलाते हैं, वे न लोक के हैं, न परलोक के, किन्तु जग नाशक, भूमि के भार हैं।
जो आदि धर्म के जिज्ञासु हैं, वे धर्म ग्रन्थों के भावों को ढूंढ़ते फिरते हैं। जिन्हें वेदांत की जिज्ञासा अधिक होता है, वे उपनिषद् और गीता से अधिक प्रेम रखते हैं किन्तु खेद है। भाव का ज्ञान बहुत कम लोगों को होता है। कि यथार्थ
श्री कृष्ण चन्द्र जी ने कुछ सूत्रों के द्वारा पुरुषोत्तम अर्जुन के प्रति कर्म, उपासना तथा ज्ञान का उपदेश किया है, वह उपदेश तीनों कारों में प्रक्रिया के साथ भिन्न-भिन्न रूप से था; परन्तु वहाँ उपदेश कर्त्ता स्वयम् भगवान् दी थे और भारत ऐसे उत्तम श्रोता थे। ऐसे भद्र अधिकारी और सर्वेक्ष-उपदेशक संसार में विरले ही जन को भावानुभूत होंगे। ऐसा आन, ‘त्रिकाल-दर्शी, भेद-अस्पर्शी तथा वेद-विहरसी, श्री व्यास भगवान् ने जिज्ञासुओं पर दया की और उन सूत्रों की व्याख्या गीता-रूप पद द्वारा अट्ठारह अध्यायों में निर्माण किया। जिसमें षट्-पद् अध्यायों से तीनों काण्डों के विभाग हैं। श्री वेद-व्यास ने अध्यात्म को अमूल्य-विषय जान, तीनों काण्डों में मिश्रित कर दिया। इस का कारण ऐसा है, कि इस राज्य विद्या और राज्य गुह्य-पदार्थ को अधिकारी-जन ढूंढेंगे तथा विधि-पूर्वक प्राप्त कर स्वराष्ट्र-सुख का लाभ उठायेंगे। अनधिकारियों को दुःख जनक होगा, ऐसा रहस्य जाने गूढ़ बना दिया। यदि ऐसा भाव न होता तो फिर श्री कृष्ण चन्द्र जी भी आज के यदि बारिधि रूप-उपदेशकों के समान, गीता-अमृत की वर्षा, भारत भर में गर्ज गर्ज कर बर्षाते; परन्तु उन्हों ने तो १८ अक्षौहिणीदल के मध्य केवल पार्थ मात्र को अपनी रूप से शीतल किया। उस गोप्यरहस्य को आज दिन भारत से लेकर, अन्य देश के मतमतान्तर भी मानते और गीता के यथार्थ भाव को जानने की प्रबल-जिज्ञासा रख, यत्न भी करते हैं; परन्तु बिना गुरु के स्वयं का पठन-पाठन गीता के भाव से हजारों कोस दूर है।
      गीता में कर्म-योग और त्याग-योग दोनों ही है अतः उसका भाव तो उन्हीं को ज्ञात होगा, जो कि कर्म-योग सिद्ध कर, त्याग-योगी हुआ होगा। श्राज दिन तो कर्म ही के उलमन से उऋण नहीं हो पाते, तो फिर त्याग-योग का पता क्या पायेंगे। कदापि नहीं। योग अथवा महात्माओं के भाव को जानने की सामर्थ्य तब होगी, कि जब इस “पुरुषार्थ कल्प-तरु-ग्रन्थ” के अनुसार साधन-युक्त जिझासु वन, महापुरुषों की खोज और प्राप्ती करेंगे, तब गीता, उपनिषद्, पद्-दर्शन इत्यादि मतमतान्तर के भाव समझने के पश्चात् और ग्रहण के उपरान्त, महात्माओं की शिक्षायें अवश्य अनुभव कर सकते हैं।
लेखक ने जब ऐसी व्यवस्था देखी, तब गीता-पदों के तीनों काण्डों की प्रक्रियाओं को स्थानासीन करके उनकी टीका की रचना आरम्भ की;
        श्री १०८ स्वामी परमानन्द जी महाराज (झुसी) ने
व्यास-भगवान् की मर्यादा हेतु इस कार्य से वर्जित कर दिये। तब वह कार्य अग्नि में समाप्त कर दिया गया। तत्पश्चात् अन्य प्रक्रियाओं का विचार आया; तद्नुसार समवत 1974-वि० में “वेदान्त-मुक्तावली” का अनुवाद करते हुये, उर्दू भाषा में उसी टीका को “जौहरे आलम-उकवय-नजात” नाम की पुस्तक प्रगट की; चक्रव्यूह का अध्यात्म भाव में ज्ञान-चौसर रचते हुये, भजन- ओमावली का दो भाग परिणित किया।
अन्तः करण में गीता, उपनिषदादि के सारांश का भाव अंकुरित हुआ और गीता के तीनों काण्डों के विस्तार-रूपी वृक्ष में, वेद-वेदाङ्ग, पुराणादि तथा मतमतान्तर इत्यादि के तात्पर्य, फल-रूप से प्रकाशित हुये। यह फल संसार के अन्य प्राकृतिक फलों से भिन्न होने के कारण, इसके मूल का नाम भी बिलक्षण ही रखना पड़ा। जो “पुरुषार्थ-कल्प-तरु” के रूप से प्रथम ही विदित हो चुका है। इस संसार में केवल भक्ति वा ज्ञान मात्र का अवलम्बन दुःख-जनक होता है; अतः प्रथम काण्ड से निवृत्ति होनी आवश्यक है।
गीता १५ अध्याय में कथन है कि
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
टीका- ऊपर (ब्रह्मलोक ) मूल और नीचे शाख-युक्त अर्थात्, न स्वस्थ अस्वस्थ नाम क्षणिक संसार रूपी-वृक्ष को अज्ञानी जन अविनाशी कहते हैं, जिस वृक्ष की पत्तियाँ वेद की ऋचायें है ; उस वृक्ष को जो जानते हैं, वे ही वेद के ज्ञाता है।
ऐसे उल्टे- वृक्ष का दृष्टांत तो असम्भव है; परन्तु भाव ऐसा है-
जगदाकार-शरीर जब गर्भ में बढ़ता है, तब ब्रह्माण्ड-रूपी सिर, मूल के समान नीचे रहता है और उसी आधार पर इन्द्रियाँ रूपी-शाखायें ऊपर फैलती हैं परन्तु जब गर्भ-रूपी भूमि को त्याग, यह वृक्ष संसार में आता है, तब गीता के कथ जानुसार उल्टा हो जाता है। ऐसी ही माया के गर्भ में संसार की दशा है। इस लिये संसार वा शरीर रूपी-वृक्षका वास्तविक मूल ज्ञात नहीं होता, कि वह ऊपर है अथवा नीचे !
जब तक मूल का ज्ञान न होगा, तब तक न वहाँ पहुँच सकते और न तो अनेक शाखाओं-रूपी संसार के भ्रमण से निवृत्ति पा, शान्ति-सुख ही उठा सकते हैं। अर्थात् संसार का मूल न ऊपर है न मीचे; किन्तु भगवान के कहने का भाव मध्य में है।
जैसे वृक्ष का मूल स्तंभ है, उसके द्वारा वृक्ष, नीचे-ऊपर खातु और पानी पाता है वैसे ही शरीर रूपी वृक्ष में मध्य ‘कुंडलिनी युक्त नाभि है’ जो गर्भ में ऊपर थी और अब मूल-रूप मध्य में है । संसार का मूल ‘वर्तमान दृष्टि है’ और ‘भूत-भविष्य शाखायें हैं। ऐसे कर्म-रूपी-संसार-वृक्ष के मूल की गहनगति उसी प्रकार ऊपर नीचे भान नहीं होती, जिस प्रकार
कि आकाश-बेलि के मूल और शाख प्रतीत नहीं होते। उस कर्म की गहनगति तभी प्रतीत हो सकती है, जब कि इस ग्रन्थ के अनुसार, प्रक्रियाओं द्वारा ढूंढा जावे। प्रमाण-
श्लोक-कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं वोद्धव्यं च विकर्मणः
         अकर्षणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥(गी.)
टी०-कर्म भी जानने के योग्य है और विकर्म मी जानने ही के योग्य है तथा अकर्म भी जानना उचित है; क्योंकि कर्म की गति अति ही गहन है, जैसे कि काल की कुटिल गति गहन है; तथापि ब्राह्म मुहूर्त के श्रागमन का प्रथम क्षण (अरुण शिखा
के प्रथम शब्द से पूर्व समय) को ग्रहण कर 60 दण्ड अहोरात्र के योग-मुहूर्तादि की प्रक्रिया और फल का ज्ञान सत्य होता है, अन्यथा गणित का भेद ‘घूणक्षर-न्याय हैं’। वैसे ही इन मूल कर्मों का ज्ञान सर्व प्रक्रियाओं के ज्ञान का हेतु है।
इन से अज्ञ शास्त्र ज्ञानियों पर एक विचित्र उदाहरण
लीजिये:-
एक ब्राह्मण के दो पुत्र थे; वे काशी में ब्रह्मचर्य धारण कर, एक उत्तम अध्यापक के शरण में विद्याध्ययन करते थे। २४ वर्ष की अवस्था तक भली प्रकार विद्याध्ययन करके पूर्ण पण्डित हो गये। पच्चीसवें वर्ष में उनके गुरु-देव, गृहस्थाश्रम उपयोगी-शिक्षा देने लगे। उसी समय उनके पिता, पुत्रों को लेने के हेतु काशी जा उपस्थित हुये और पुत्रों को घर पर चलने का उपदेश करने लगे। दोनों ब्रह्मचारी सविनय गुरु और पिता को नमस्कार कर, कहते भये
हे भगवन् ! हम लोगों ने इतना कठिन परिश्रम विद्याध्ययन में इस उद्देश्य से किया है, कि इस असार-संसार से निवृत्ति मिल जाये; तत्पश्चात् पठित् “अपरा-विद्या” से भी मुक्त हो “परा-विद्या” की शान्ति के योग्य हो जायें। यदि इतना परिश्रम कर फिर भी जगत्-प्रपंच की गहनगति में पतित होवें, तो हमारे समान अज्ञानी कौन होगा ? कोई नहीं। अतः हम
संसार को त्याग परमानन्द का मार्ग लेंगे। गुरु और पिताने उन्हें बहुतेरा समझाया, परन्तु उन्होंने एक न मानी और त्याग युक्त, उत्तराखण्ड के भ्रमण के निमित्त चल दिए।
हिमगिरि के भ्रमण में एक स्थान मिला, वहाँ एक सरिता के तट पर दोनों भ्राता इस विचार से कि इस नदी में स्नान कर नित्य कर्म से निवृत्त होने के पश्चात् आगे गमन करेंगे, वहीं बैठ गये। फिर मज्जन के उपरांत भजन में लगे। इसी बीच में किसी नगर से एक गुसाई की दो कन्यायें दिव्य-सुन्दरी और नव युवती जल के निमित्त आयी। वे उन ब्रह्मचारियों की ऐसी सुन्दर और कान्ति-मय नवयुवकता की छटा पर अनायास ही मोहित हो; उन्हें उक्ति के साथ निमंत्रण दे, अपने गृह पर ले गई। वहाँ षट-रस-भोजन में उन कन्याओं ने ब्रह्मचारिओं को एक ऐसी बूटी खिला दी कि वे दोनों अपने विद्या के प्रताप को भूल, अज्ञान बन वहीं आसक्त हो, बारह वर्ष उन कन्याओं के सङ्ग बिहार करते रह गये।
इतने समय पश्चात कन्याओं को यह विचार उत्पन्न हुआ, कि हम लोगोंने इन दो सन्यासियों को अपने त्रिया-जाल में फांस कर, पतित कर डाला; अतः अब इनको मुक्त करना उचित है, जिससे ये बेचारे अपनी बिगड़ी दशा को पुनः सुधार लें। इस विचार के अनुसार पुनः उन दोनों ने एक द्वितीय बूटी पांक में
उन्हें खिला दी। तब फिर उन ब्रहाचारियों को अपनी पूर्वबस्था का ज्ञान हुआ। वे उसी सरिता पर जा विचार-निमग्न हो सोचने लगे कि सन्यासियों को इस प्रकार पतित होने से, धर्मशास्त्र के अनुसार दस हजार वर्ष नरक में वास करना पड़ता है। वे बेचारे
इस चिन्ता में विह्वल हो गये; परन्तु बीते पर खेद करना वैसी ही निरर्थक है, जैसी “समय चूकि पुनि का पछताने” फिर उन्हें इस पाप के प्रायश्चित्त का विचार आया और तदनुसार वे उकठे काले-पीपल के खोढर में बैठ जल कर भस्म हो गये।
उपरोक्त पाप के संस्कार से उन दोनों का जन्म एक ब्राह्मण के घर कन्या-रूप में हुआ; जैसे पूर्व में बड़े-छोटे भ्राता थे वैसे ही यहाँ पर भी बड़ी छोटी बहिने हुई। ये बहिने जब सयानी हुई तो ब्राह्मण उन्हें विद्याध्ययन कराने लगा। कन्याओं को अपनी पूर्वव्यवस्था का ज्ञान होने से, थोड़े समय में वे विदुषी
हो गई। जब वे विवाह के योग्य हुई, तो फिर उनके पिताने दो उत्तम वर नियुक्त किये। बड़ी कन्या के घरफो, “कर्मणो हयापि” इत्यादि पूर्वोक्त श्लोक के ऊपर चिरकाल से संशय था, जिसका समाधान किसीसे नहीं हो पाता था। उस वर को यह ज्ञात
चुका था, कि जिस कन्या से उसका विवाह होगा, वह अपनी भगनी सहित बड़ी विदुषी है और इस शंका का समाधान उन्हीं से होगा। जब विवाह की नियमिततिथि पर दोनों वर-कन्या, शुभ-घड़ी में बिबाहोपचार के निमित्त एकत्र हुये, तो
फिर वर ने अपनी शंका की समाधानता के लिये, वही प्रश्न कन्यासे किया। उस को उत्तर मिला कि प्रथम विवाह कर लीजिये, फिर इस प्रश्न का समाधान मेरी छोटी बहिन से करा लीजियेगा। अस्तु –
वरने यह बात मान उसके साथ विवाह कर लिया। अन्त में जब छोटी बहिन अपने ससुराल चली, तो वह पुरुष उसके समीप जा, अपना उक्त प्रश्न किया। उसने उत्तर दिया कि मैं यहाँ से शरीर त्याग, अमुक राजा के गृह में जन्म लूँगी और वहां आपके प्रश्न का उत्तर मिलेगा। दोनों कन्यायें अपनी अपनी ससुराल चली गईं।
छोटी कन्या वहाँ से मरण को प्राप्त हो; अपने कथनानुसार समय पर राजा के गृह जन्मी,  यहाँ क्रमशः सयानी होने पर एक राजकुमार ने उसका पाणिग्रहण किया। जिस समय वह अपनी ससुराल के लिये बिदा हो रही थी, उसी समय यह संकित ब्राह्मण अपने प्रश्न के उत्तर के निमित्त किसी प्रकार उसके समीप पहुँचा। वहाँ भी उसको यही उत्तर मिला कि यहाँ से मरने पर एक अन्य राजा के भवन जन्म पाऊँगी और वहाँ ही आप को उत्तर मिलेगा।
वह पुरुष लौट आया और राजकुमारी अपनी ससुराल चली गई। वहां उसको उस राजकुमार से एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसी प्रसव में वह मर कर फिर द्वितीय राजा के यहाँ जन्मी। उधर यह राजकुमार का पुत्र अथवा यो कहिये कि
स्वयं उस कन्या का पुत्र, दिनो-दिन तरुण होने लगा और इधर आप भी उस राजा के यहाँ तरुण होने लगी। उपयुक्त अवस्था होने पर, इन दोनों का परस्पर विवाह हो गया। वह पूर्वोक्त शंकित-विप्र, फिर उस कन्या के समीप पहुँच उत्तर चाहा।
कन्या ने उत्तर दिया-हे विप्र! तुम अंधे हो, इसी से अपने प्रश्न का उत्तर आँखों से देखते हुये भी प्रश्न करते हो ; देखो यह राजकुमार, पूर्व जन्म का मेरा पुत्र है और पति बन गया है। इतना कह पूर्व का सारा वृत्तान्त सुना कर, फिर कहने लगी, कि कर्म की गति ऐसी ही गहन होती है जिसमें यह नहीं ज्ञात होता कि फर्म, अकर्म तथा विकर्म, इन तीनों में किसका
फल कैसा है और तुम स्वयं देख ही रहे हो, कि जैसी दशा मेरी हो रही है। हम दोनों भ्राता एक साथ ही एक ही अपराध में च्युत हुये; परन्तु कर्म की गति को तो देखो, कि मेरा बड़ा भ्राता तो अभी तक तुम्हारी ही स्त्री बन कर है और मैंने तुम्हारे देखते-देखते तीन जन्म ले लिये। अभी भविष्य में क्या होगा ? यह कौन जानता है।
ब्राह्मण ने फिर प्रश्न किया कि इस कर्म-गति से किस प्रकार उद्धार होगा ? इस पर उसे उत्तर मिला, कि यह युक्ति महात्माओं से मिलेगी। देखो- हम लोगोंने सब कुछ किया; परन्तु महात्माओं की शरण न लेने से, कर्म की उलझन से निवृत्त न हो सके अर्थात् विचार रूपी ज्ञान का पान गुरु-सेवन से सर्व बंधनों को निर्मूल करता है।
प्रश्न-उन श्री गुरुओं के लक्षण कैसे हैं ?
उत्तर– इस रद्दस्य पर कुछ पद सुनो
                     ॥ कवित्त ॥
विसद् विचार मय शुद्ध सदाचार मय,
सत्य सुख सार मय प्रचार उमहत है ।
परम पुनीत योग भोग मय सम्पदा को,
माँगे बिना दीओ सदा सब को चहत है।।
कहत “उमानंद” सुभाव ब्रह्म मौज मय,
देखि सब ईश रूप उनको कहत हैं।
धूप शीत सहत दहत दुख घूमि घूमि,
जीव भ्रम भावना मिटावतै रहत हैं।।
इस उपदेश से विप्र को तीव्र-वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने गृह त्याग, महात्माओं की शरण में जा, इच्छित फल को प्राप्त किया; उसकी स्त्री भी सर्व वासनाओं का त्याग कर, महात्माओं की कृपा से पूर्वाभ्यास के बल मुक्त हो गई।
प्रियजन! आप लोगों को तो उक्त उदाहरण से कर्म की गहन-गति भली भाँति ज्ञात हो गई होगी; फिर ही
विचारें, कि इस अदृश्य-गति को सुलझाना कितना दुर्घट है ?
तथापि जैसे नौ मन कच्चे सूत की उलझन को सुलझाना कठिन भान होते हुये भी, अग्नि की एक चिनगारी क्षण भर में सूत को भस्म कर, उलझन तथा सुलझन की क्रिया से मुक्ति दे देती है। ठीक वैसे ही नौ उपाधियों से उत्पन्न कर्म, विकर्म, अकर्म की ओहपोहता, न कर्म करने से निवृत्ति होगी और न कर्म के त्याग ही से निवृत्ति होगी। केवल ज्ञान रूपी अग्रि से क्षण-मात्र में दग्ध हो जायगी।
अव विशेष कुछ विस्तार न कर मैं अन्तिम दो शब्द और कह देता हूं, कि पण्डित वा कवि न होते हुये, अपनी अल्प मति के अनुसार जो शास्त्रों का विचार प्रकाशित कर दिया है, उसमें जहाँ कहीं हम से अनुचित वा अशुद्धि हुई हो, उसे विद्या-बन
माली, अनुभव शाली, सज्जन-जन, ‘इस मन-रञ्जन, नयनन-अञ्जन, आवरण-भञ्जन, संसृति-निकन्दन तथा आत्म-मञ्जन’ धर्म-ग्रंथ को सुधार लेवेंगे। श्रेष्ट्रों के काम, दाताओं के दाम और ईश्वर के नाम, बिगड़े हुये को बनाते हैं ।
● पाली भाषा में कहा है “तहवि कहिम्पि कहम्पि अलोइअंपि पअडेदि”
(तथापि कदापि कथमपि अलौकिक वस्तु भी प्रकट हो जाती है)
                           सारांश समाप्त
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